Prominent Writer Of Hindi Literature And Theater : काशी (वाराणसी) में 30 जनवरी 1889 को जन्मे जयशंकर प्रसाद सिर्फ छायावादी कवि ही नहीं थे बल्कि आधुनिक हिंदी साहित्य में भी उनका नाम बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है. रंगमंच की दुनिया से उनका गहरा रिश्ता था. इतने वर्षों बाद भी हिंदी साहित्य जगत में उनका नाम देदीप्यमान है. यदि ये कहा जाए, कि उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा और सुधामुखी लेखनी से हिंदी गौरवान्वित हुई है, तो इसमें अतिश्योक्ति नहीं होगी.
यह बात अपने आप में आश्चर्य पैदा करती है, कि महान साहित्यकार प्रसाद जी की स्कूली शिक्षा सिर्फ आठवीं कक्षा तक ही हुई, लेकिन उसके बाद उन्होंने घर पर रहकर हिंदी, संस्कृत, उर्दू, अंग्रेज़ी और फारसी में उच्च कोटि की योग्यता प्राप्त की. बचपन से ही प्रसाद जी को कविताएं लिखना अच्छा लगता था. शुरुआती दिनों में वे ब्रज भाषा में कविता लिखते, लेकिन आगे चलकर खड़ी बोली में लिखने लगे. मूलत: वे कवि ही थे, जिसका बेहतरीन उदाहरण है ‘कामायनी’.
भारतेंदु युग और द्विवेदी युग से चली आ रही नाटकों की परंपरा को जयशंकर प्रसाद ने प्रौढ़ता दी. उपन्यास साहित्य में जो स्थान मुंशी प्रेमचंद का है, नाटक रचना में वही स्थान जयशंकर प्रसाद का है. हिंदी नाटक की दुनिया में इनके द्वारा अभूतवूर्व परिवर्तन हुआ. उन्होंने एक दर्जन से अधिक नाटकों की रचना की और अपने हर नाटक में एक न एक उत्कृष्ट नारी चरित्र की उद्भावना की.
जयशंकर प्रसाद का कहानी-संग्रह ‘छाया’ 1912 से 1918 तक उनके द्वारा लिखी कहानियों का संग्रह है, जिनका पहला प्रकाशन ‘इंदु’ में हुआ था. जयशंकर प्रसाद को साहित्य का यदि अध्ययन करना है तो इस संग्रह की कहानियों को पढ़ना बहुत ज़रूरी हो जाता है. प्रसाद जी की शैली और भावना के विकास की सीढ़ी उनकी कहानियों को पढ़ने के बाद ही चढ़ी जा सकती है. इस संग्रह के पहले संस्करण में सिर्फ पांच कहानियां थीं, लेकिन इसके दूसरे संस्करण में 11 कहानियों को संगृहित किया गया, जिनमें- ‘तानसेन’, ‘चंदा’, ‘ग्राम’, ‘रसिया बालम’, ‘शरणागत’, ‘सिकंदर की शपथ’, ‘चित्तौर उद्धार’, ‘अशोक’, ‘गुलाम’, ‘जहांनारा’ और ‘मदन-मृणालिनी’ शामिल हैं. प्रस्तुत है उनके इसी कहानी-संग्रह से एक अद्भुत कहानी ‘रसिया बालम’…
रसिया बालम : जयशंकर प्रसाद
संसार को शान्तिमय करने के लिए रजनी देवी ने अभी अपना अधिकार पूर्णत: नहीं प्राप्त किया है. अंशुमाली अभी अपने आधे बिम्ब को प्रतीची में दिखा रहे हैं. केवल एक मनुष्य अर्बुद-गिरि-सुदृढ़ दुर्ग के नीचे एक झरने के तट पर बैठा हुआ उस अर्ध-स्वर्ण पिंड की ओर देखता है और कभी-कभी दुर्ग के ऊपर राजमहल की खिडक़ी की ओर भी देख लेता है, फिर कुछ गुनगुनाने लगता है.
घंटों उसे वैसे ही बैठे बीत गए. कोई कार्य नहीं, केवल उसे उस खिडक़ी की ओर देखना. अकस्मात् एक उजाले की प्रभा उस नीची पहाड़ी भूमि पर गिरी और साथ ही किसी वस्तु का शब्द भी हुआ, परन्तु उस युवक का ध्यान उस ओर नहीं था. वह तो केवल उस खिड़की में के उस सुन्दर मुख की ओर देखने की आशा से उसी ओर देखता रहा, जिसने केवल एक बार उसे झलक दिखाकर मन्त्रमुग्ध कर दिया था.
इधर उस कागज में लिपटी हुई वस्तु को एक अपरिचित व्यक्ति, जो छिपा खड़ा था, उठाकर चलता हुआ. धीरे-धीरे रजनी की गम्भीरता उस शैल-प्रदेश में और भी गम्भीर हो गयी और झाड़ियों की ओट में तो अन्धकार मूर्तिमान हो बैठा हुआ ज्ञात होता था, परन्तु उस युवक को इसकी कुछ भी चिन्ता नहीं. जब तक उस खिडक़ी में प्रकाश था, तब तक वह उसी ओर निर्निमेष देख रहा था, और कभी-कभी अस्फुट स्वर से वही गुन-गुनाहट उसके मुख से वनस्पतियों को सुनाई पड़ती थी.
जब वह प्रकाश बिल्कुल न रहा, तब वह युवक उठा और समीप के झरने के तट से होते हुए उसी अंधकार में विलीन हो गया.
दिवाकर की पहली किरण ने जब चमेली की कलियों को चटकाया, तब उन डालियों को उतना नहीं ज्ञात हुआ, जितना कि एक युवक के शरीर-स्पर्श से उन्हें हिलना पड़ा, जो कि कांटे और झाड़ियों का कुछ भी ध्यान न करके सीधा अपने मार्ग का अनुसरण कर रहा है. वह युवक फिर उसी खिडक़ी के सामने पहुंचा और जाकर अपने पूर्व-परिचित शिलाखंड पर बैठ गया, और पुन: वही क्रिया आरंभ हुई. धीरे-धीरे एक सैनिक पुरुष ने आकर उस युवक के कंधे पर अपना हाथ रक्खा.
युवक चौंक उठा और क्रोधित होकर बोला, “तुम कौन हो?”
आगन्तुक हंस पड़ा और बोला, “यही तो मेरा भी प्रश्न है कि तुम कौन हो? और क्यों इस अन्त:पुर की खिडक़ी के सामने बैठे हो? और तुम्हारा क्या अभिप्राय है?”
युवक, “मैं यहां घूमता हूं, और यही मेरा मकान है. मैं जो यहां बैठा हूं, मित्र! वह बात यह है कि मेरा एक मित्र इसी प्रकोष्ठ में रहता है; मैं कभी-कभी उसका दर्शन पा जाता हूं, और अपने चित्त को प्रसन्न करता हूं.”
सैनिक, “पर मित्र! तुम नहीं जानते कि यह राजकीय अन्त:पुर है. तुम्हें ऐसे देखकर तुम्हारी क्या दशा हो सकती है? और महाराजा तुम्हें क्या समझेंगे?”
युवक, “जो कुछ हो; मेरा कुछ असत् अभिप्राय नहीं है, मैं तो केवल सुन्दर रूप का दर्शन ही निरन्तर चाहता हूं, और यदि महाराज भी पूछें तो यही कहूंगा.”
सैनिक, “तुम जिसे देखते हो, वह स्वयं राजकुमारी है, और तुम्हें कभी नहीं चाहती. अतएव तुम्हारा यह प्रयास व्यर्थ है.”
युवक, “क्या वह राजकुमारी है? तो चिन्ता क्या! मुझे तो केवल देखना है, मैं बैठे-बैठे देखा करूंगा. पर तुम्हें यह कैसे मालूम कि वह मुझे नहीं चाहती?”
सैनिक, “प्रमाण चाहते हो तो (एक पत्र देकर) यह देखो.”
युवक उसे लेकर पढ़ता है. उसमें लिखा था.
“युवक!
तुम क्यों अपना समय व्यर्थ व्यतीत करते हो? मैं तुमसे कदापि नहीं मिल सकती. क्यों महीनों से यहां बैठे-बैठे अपना शरीर नष्ट कर रहे हो, मुझे तुम्हारी अवस्था देखकर दया आती है. अत: तुमको सचेत करती हूं, फिर कभी यहां मत बैठना.
वही-
जिसे तुम देखा करते हो!”
युवक कुछ देर के लिए स्तंभित हो गया. सैनिक सामने खड़ा था. अकस्मात् युवक उठकर खड़ा हो गया और सैनिक का हाथ पकड़कर बोला, “मित्र! तुम हमारा कुछ उपकार कर सकते हो? यदि करो, तो कुछ विशेष परिश्रम न होगा.”
सैनिक, “कहो, क्या है? यदि हो सकेगा, तो अवश्य करूंगा.”
तत्काल उस युवक ने अपनी उंगली एक पत्थर से कुचल दी, और अपने फटे वस्त्र में से एक टुकड़ा फाड़कर तिनका लेकर उसी रक्त से टुकड़े पर कुछ लिखा, और उस सैनिक के हाथ में देकर कहा, “यदि हम न रहें, तो इसको उस निष्ठुर के हाथ में दे देना. बस, और कुछ नहीं.”
इतना कहकर युवक ने पहाड़ी पर से कूदना चाहा; पर सैनिक ने उसे पकड़ लिया, और कहा-रसिया! ठहरो! –
युवक अवाक् हो गया; क्योंकि अब पांच प्रहरी सैनिक के सामने सिर झुकाए खड़े थे, और पूर्व सैनिक स्वयं अर्बुदगिरि के महाराज थे.
महाराज आगे हुए और सैनिकों के बीच में रसिया. सब सिंहद्वार की ओर चले. किले के भीतर पहुंचकर रसिया को साथ में लिए हुए महाराज एक प्रकोष्ठ में पहुंचे. महाराज ने प्रहरी को आज्ञा दी कि महारानी और राजकुमारी को बुला लावे. वह प्रणाम कर चला गया.
महाराज, “क्यों बलवंत सिंह! तुमने अपनी यह क्या दशा बना रक्खी है?”
रसिया (चौंककर), “महाराज को मेरा नाम कैसे ज्ञात हुआ?”
महाराज, “बलवंत! मैं बचपन से तुम्हें जानता हूं और तुम्हारे पूर्व पुरुषों को भी जानता हूं.”
रसिया चुप हो गया. इतने में महारानी भी राजकुमारी को साथ लिए हुए आ गईं.
महारानी ने प्रणाम कर पूछा, “क्या आज्ञा है?”
महाराज, “बैठो, कुछ विशेष बात है. सुनो, और ध्यान से उसका उत्तर दो. यह युवक जो तुम्हारे सामने बैठा है, एक उत्तम क्षत्रिय कुल का है, और मैं इसे जानता हूं. यह हमारी राजकुमारी के प्रणय का भिखारी है. मेरी इच्छा है कि इससे उसका ब्याह हो जाय.”
राजकुमारी, जिसने कि आते ही युवक को देख लिया था और जो संकुचित होकर इस समय महारानी के पीछे खड़ी थी, यह सुनकर और भी संकुचित हुई. पर महारानी का मुख क्रोध से लाल हो गया. वह कड़े स्वर में बोलीं, “क्या आपको खोजते-खोजते मेरी कुसुम-कुमारी कन्या के लिए यही वर मिला है? वाह! अच्छा जोड़ मिलाया. कंगाल और उसके लिए निधि; बंदर और उसके गले में हार; भला यह भी कहीं सम्भव है? आप शीघ्र अपने भ्रान्तिरोग की औषधि कर डालिए. यह भी कैसा परिहास है! (कन्या से) चलो बेटी, यहां से चलो.”
महाराज, “नहीं, ठहरो और सुनो. यह स्थिर हो चुका है कि राजकुमारी का ब्याह बलवंत से होगा, तुम इसे परिहास मत जानो.”
अब जो महारानी ने महाराज के मुख की ओर देखा, तो वह दृढ़प्रतिज्ञ दिखाई पड़े. निदान विचलित होकर महारानी ने कहा, “अच्छा, मैं भी प्रस्तुत हो जाऊंगी पर इस शर्त पर कि जब यह पुरुष अपने बाहुबल से उस झरने के समीप से नीचे तक एक पहाड़ी रास्ता काटकर बना ले; उसके लिए समय अभी से केवल प्रात:काल तक का देती हूं, जब तक कि कुक्कुट का स्वर न सुनाई पड़े. तब अवश्य मैं भी राजकुमारी का ब्याह इसी से कर दूंगी.”
महाराज ने युवक की ओर देखा, जो निस्तब्ध बैठा हुआ सुन रहा था. वह उसी क्षण उठा और बोला, “मैं प्रस्तुत हूं, पर कुछ औजार और मसाले के लिए थोड़े विष की आवश्यकता है.”
उसकी आज्ञानुसार सब वस्तुएं उसे मिल गईं, और वह शीघ्रता से उसी झरने के तट की ओर दौड़ा, और एक विशाल शिलाखंड पर जाकर बैठ गया और उसे तोड़ने का उद्योग करने लगा; क्योंकि इसी के नीचे एक गुप्त पहाड़ी पथ था.
निशा का अंधकार कानन-प्रदेश में अपना पूरा अधिकार जमाए हुए है. प्राय: आधी रात बीत चुकी है. पर केवल उन अग्नि-स्फुलिंगों से कभी-कभी थोड़ा-सा जुगनू का-सा प्रकाश हो जाता है, जो कि रसिया के शस्त्र-प्रहार से पत्थर में से निकल पड़ते हैं. दनादन चोट चली जा रही है-विराम नहीं है क्षण भर भी-न तो उस शैल को और न उस शस्त्र को. अलौकिक शक्ति से वह युवक अविराम चोट लगाए ही जा रहा है. एक क्षण के लिए भी इधर-उधर नहीं देखता. देखता है, तो केवल अपना हाथ और पत्थर; उंगली एक तो पहले ही कुचली जा चुकी थी, दूसरे अविराम परिश्रम! इससे रक्त बहने लगा था. पर विश्राम कहां? उस वज्रसार शैल पर वज्र के समान कर से वह युवक चोट लगाए ही जाता है. केवल परिश्रम ही नहीं, युवक सफल भी हो रहा है. उसकी एक-एक चोट में दस-दस सेर के ढोके कट-कटकर पहाड़ पर से लुढक़ते हैं, जो सोए हुए जंगली पशुओं को घबड़ा देते हैं. यह क्या है? केवल उसकी तन्मयता-केवल प्रेम ही उस पाषाण को भी तोड़े डालता है.
फिर वही दनादन-बराबर लगातार परिश्रम, विराम नहीं है! इधर उस खिडक़ी में से आलोक भी निकल रहा है और कभी-कभी एक मुखड़ा उस खिडक़ी से झांककर देख रहा है. पर युवक को कुछ ध्यान नहीं, वह अपना कार्य करता जा रहा है.
अभी रात्रि के जाने के लिए पहर-भर है. शीतल वायु उस कानन को शीतल कर रही है. अकस्मात् ‘तरुण-कुक्कुट-कण्ठनाद’ सुनाई पड़ा, फिर कुछ नहीं. वह कानन एकाएक शून्य हो गया. न तो वह शब्द ही है और न तो पत्थरों से अग्नि-स्फुलिंग निकलते हैं.
अकस्मात् उस खिडक़ी में से एक सुन्दर मुख निकला. उसने आलोक डालकर देखा कि रसिया एक पात्र हाथ में लिए है और कुछ कह रहा है. इसके उपरान्त वह उस पात्र को पी गया और थोड़ी देर में वह उसी शिलाखंड पर गिर पड़ा. यह देख उस मुख से भी एक हल्का चीत्कार निकल गया. खिडक़ी बंद हो गयी. फिर केवल अन्धकार रह गया.
प्रभात का मलय-मारुत उस अर्बुद-गिरि के कानन में वैसी क्रीड़ा नहीं कर रहा है, जैसी पहले करता था. दिवाकर की किरण भी कुछ प्रभात के मिस से मंद और मलिन हो रही है. एक शव के समीप एक पुरुष खड़ा है, और उसकी आंखों से अश्रुधारा बह रही है, और वह कह रहा है, “बलवंत! ऐसी शीघ्रता क्या थी, जो तुमने ऐसा किया? यह अर्बुद-गिरि का प्रदेश तो कुछ समय में यह वृद्ध तुम्हीं को देता, और तुम उसमें चाहे जिस स्थान पर अच्छे पर्यंक पर सोते. फिर, ऐसे क्यों पड़े हो? वत्स! यह तो केवल तुम्हारी परीक्षा थी, यह तुमने क्या किया?”
इतने में एक सुन्दरी विमुक्त-कुंतला-जो कि स्वयं राजकुमारी थी, दौड़ी हुई आयी और उस शव को देखकर ठिठक गयी, नतजानु होकर उस पुरुष का, जो कि महाराज थे और जिसे इस समय तक राजकुमारी पहचान न सकी थी- चरण धरकर बोली, “महात्मन् ! क्या व्यक्ति ने, जो यहां पड़ा है, मुझे कुछ देने के लिए आपको दिया है? या कुछ कहा है?”
महाराज ने चुपचाप अपने वस्त्र में से एक वस्त्र का टुकड़ा निकालकर दे दिया. उस पर लाल अक्षरों में कुछ लिखा था. उस सुन्दरी ने उसे देखा और देखकर कहा, “कृपया आप ही पढ़ दीजिए.”
महाराज ने उसे पढ़ा. उसमें लिखा था-
“मैं नहीं जानता था कि तुम इतनी निष्ठुर हो. अस्तु; अब मैं यहीं रहूंगा; पर याद रखना; मैं तुमसे अवश्य मिलूंगा, क्योंकि मैं तुम्हें नित्य देखना चाहता हूं, और ऐसे स्थान में देखूंगा, जहां कभी पलक गिरती ही नहीं.
तुम्हारा दर्शनाभिलाषी-
रसिया”
इसी समय महाराज को सुन्दरी पहचान गयी, और फिर चरण धरकर बोली, “पिताजी, क्षमा करना.” और, शीघ्रतापूर्वक रसिया के कर-स्थित पात्र को लेकर अवशेष पी गयी और गिर पड़ी. केवल उसके मुख से इतना निकला, “पिताजी, क्षमा करना.”
महाराज देख रहे थे!
(वास्तव में वह शब्द कुक्कुट का नहीं बल्कि छद्म-वेशिनी महारानी का था, जो कि बलवंत सिंह ऐसे दीन व्यक्ति से अपनी कुसुम-कुमारी के पाणिग्रहण की अभिलाषा नहीं रखती थी. किन्तु महाराज इससे अनभिज्ञ थे, और अंत में रसिया और राजकुमारी ने अपनी लीला समाप्त कर ली.)
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FIRST PUBLISHED : July 13, 2023, 21:39 IST