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बैठक में बवाल! जिला पंचायत सदस्य घूरसिंह सल्लाम ने सदन में फाड़ा कुर्ता, प्रशासन पर लगाए गंभीर आरोप

जनहित की अनदेखी से भड़के जनप्रतिनिधि, बोले – “जब सुना ही नहीं जाएगा, तो कुर्ता पहनने का हक भी नहीं”

सिवनी। जिला पंचायत सिवनी में मंगलवार को हुई बैठक तब एक नाटकीय और विस्फोटक मोड़ ले बैठी, जब सदस्य घूरसिंह सल्लाम ने प्रशासन की कार्यशैली और जनहित की उपेक्षा के खिलाफ़ खुलेआम अपना कुर्ता फाड़ डाला। सदन में मौजूद अफसर और जनप्रतिनिधि इस अप्रत्याशित घटनाक्रम से अवाक रह गए। मगर यह दृश्य न केवल विरोध का प्रतीक बन गया, बल्कि सिवनी की प्रशासनिक व्यवस्था पर एक बड़ा सवाल भी खड़ा कर गया।

“जनप्रतिनिधियों की नहीं सुनी जा रही आवाज़” — सल्लाम का सुलगता सवाल

घूरसिंह सल्लाम ने आरोप लगाया कि जिले की पंचायतों में जनता से जुड़ी मूलभूत समस्याएं महीनों से लंबित हैं। सड़कें जर्जर हैं, जलसंकट बना हुआ है, प्रधानमंत्री आवास और मनरेगा जैसे योजनाएं पंगु हो गई हैं। बावजूद इसके, अधिकारियों की प्राथमिकता केवल फाइलों और आंकड़ों तक सिमट कर रह गई है।
उन्होंने आक्रोश में कहा — “अगर इस कुर्सी पर बैठकर हम जनता की बात भी नहीं रख सकते, तो इस कुर्ते का क्या मतलब? इस व्यवस्था में हमारी आवाज़ की कोई अहमियत नहीं बची!”

विकास कार्यों में भ्रष्टाचार और धांधली का आरोप

बैठक के दौरान अन्य सदस्यों — दुपेन्द्र अमोले, चित्रा बिसेन, नितिन डेहरिया — ने भी घूरसिंह सल्लाम का समर्थन करते हुए कहा कि ग्राम पंचायतों और जनपदों में भ्रष्टाचार चरम पर है। योजनाओं के टेंडर, भुगतान और निरीक्षण सभी में अनियमितता है। अधिकारियों की जवाबदेही शून्य है।
जिला पंचायत के वार्ड क्रमांक 9 की सदस्य चित्रा बिसेन ने तीखा तंज कसते हुए कहा- “यहां सिर्फ़ रिपोर्ट कार्ड अच्छा दिखाया जाता है, जमीनी हालात की किसी को परवाह नहीं। विकास सिर्फ फोटोग्राफ और सोशल मीडिया पर है, गांवों में नहीं।”

अधिकारियों की चुप्पी बनी सवालिया निशान

इस तीखे विरोध के बीच प्रशासनिक अधिकारी चुपचाप बैठे रहे। न कोई स्पष्टीकरण, न आश्वासन। इससे प्रतिनिधियों का आक्रोश और भी भड़क उठा। कई सदस्यों ने कहा कि अधिकारियों की चुप्पी यह साबित करती है कि या तो वे जवाब देने लायक नहीं हैं, या फिर जानबूझकर आंख मूंदे बैठे हैं।

वीडियो वायरल — जनता की मिश्रित प्रतिक्रिया

बैठक का वीडियो सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हो चुका है। किसी ने इसे “ज़मीनी नेता की पीड़ा” बताया, तो किसी ने इसे “राजनीतिक नाटक”। मगर हर प्रतिक्रिया के पीछे एक बात साझा थी — “जनता अब थक चुकी है और अब जवाब चाहती है।”

क्या अब भी चुप रहेगा प्रशासन?

घटना के बाद एक और सवाल जो गूंज रहा है, वह यह है कि क्या प्रशासन अब भी अपने रवैये में बदलाव करेगा? क्या जनप्रतिनिधियों को सम्मान मिलेगा? क्या जनता की मूलभूत समस्याओं को प्राथमिकता दी जाएगी? और सबसे अहम — क्या अब सिस्टम सुधरेगा या फिर एक और हंगामेदार बैठक इंतज़ार में है?
इस पूरे घटनाक्रम के निष्कर्ष में एक सवाल — जब एक निर्वाचित जनप्रतिनिधि को अपनी बात रखने के लिए कपड़े फाड़ने की नौबत आ जाए, तो क्या ये लोकतंत्र की मजबूती है या व्यवस्था की विफलता?



Devraj Dehariya

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